विद्यालय के बारे में
विद्यालय के बारे में
बद्रीनाथ की ओर प्रस्थान करते हुए महाराज श्री जब १९०४ में मुनि की रेती में वटवृक्ष के नीचे रात्रि को शयन कर रहे थे तो उन्होंने एक स्वप्न देखा कि वे कुछ बालकों को लेकर विद्यालय चला रहे हैं। इसी स्वप्न से विद्यालय की स्थापना का बीजाँकुर प्रस्फुटित हो चुका था। स्वामी जी स्वप्न को संकल्प रूप में परिणित कर उसको साकार करने का इढ़ निश्चय कर लिया था। तपस्या के उपरांत सन १९१० में महाराज श्री राघवाचार्य जी पुनः उसी स्थान मुनि की रेती में वापस लौट कर गंगा तट पर तप करने लगे तथा पूर्व स्वप्न संकल्प को मूर्त रूप देने, सनातन एवं वैदिक ज्ञान की रक्षा, प्रचार- प्रसार एवं संरक्षण-संवर्धन हेतु गहन चिंतन में लग गये।


यहाँ पर निवास के दौरान नगर के गणमान्य लोग तपस्वी साधु के सम्पर्क आने लगे और गुरुकुल स्थापना का स्वप्न संकेत मूर्त रूप लेने लगा, और आसपास के लोग अपने बालकों को महाराज जी के पास शिक्षा ग्रहण करने हेतु भेजने लगे। इसी दौरान महाराज श्री सम्पर्क प्रसिद्ध रूरनी संत कृपाल सिंह महाराज के परम शिष्य सावन रूहानी (रूहानी मिशन के अधिष्ठाता) से सम्पर्क हुआ और दोनों संत शीघ्र ही आत्मीय बन गए। तत्कालीन ऋषि-महर्षियों के सम्पर्क के साथ ज्ञान, धर्म, वेदांत, दर्शन व योग की चर्चाओं से उनकी कीर्ति दिग-दिगन्तर में फैलती हुई तत्कालीन टिहरी महाराजा स्वर्गीय नरेन्द्रशाह महाराज जो कि स्वयं गुणग्राही थे, तक पहुँची जिसके कारण उन्होंने महाराज श्री को अपने राजभवन में पधारने का निमंत्रण दिया तथा उनसे ज्ञान परिचर्चा एवं योगादि विषयों पर चर्चा-परिचर्चा की। महाराज श्री के ज्ञान एवं योगिक चमत्कारों से प्रभावित हो कर मुनि की रेती में गुरुकुल हेतु भूमि, १०० रुपए वार्षिक अनुदान प्रदान करने तथा गुरुकुल के निर्माण में यथासंभव सहयोग भी प्रदान करने हेतु संकल्पबद्ध हुए।
भूमि प्राप्त होने के पश्चात संत कृपात्र सिंह जी ने सतसंग भवन, विद्याध्ययन करने वाले छात्रों के लिए कक्ष आदि भी निर्माण करवाकर स्वामी राघवाचार्य जी को समर्पित किया। गुरुकुल निर्माण के पश्चात विद्यालय से भूमि लेकर भारत सरकार द्वारा मुनि की रेती से स्वर्गाश्रम आवागमन हेतु इसी स्थान पर स्वामी शिवानंद जी की याद में झूला पुल का निर्माण किया जो कि आज शिवानन्द रामझूला पुत्र के नाम से विश्वविख्यात है। अध्ययन काल में वाराणसी के विद्वान संत महात्माओं के सम्पर्क में होने के कारण प्रख्यात विद्वान व क्विन्स संस्कृत कालेज वाराणसी से १९१९ में मध्यमा कक्षाओं को संचालन करने की मान्यता प्राप्त हो गई थी। वाराणसेय संस्कृत विश्वविद्यालय जो कि वर्तमान में सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय के नाम से जाना जाता है के तत्कालीन कुलपति विद्वद्दरेण्य पंडित कविराज से गुरुकुल के छात्रों हेतु प्रमाणपत्रादि निर्गत करने हेतु मान्यता के लिए अनुग्रह किया। महाराज श्री के आग्रह पर महापण्डित श्री गोपीनाथ कविराज जी द्वारा १९३० में शास्त्री एवं आचार्य कक्षाओं की मान्यता प्रदान की गई। तत्कालीन समय में शास्त्री (बी०ए०) एवं आचार्य (एम०ए०) कक्षाओं हेतु व्याकरण, साहित्य, दर्शन एवं षडदर्शन विषयों की मान्यता प्रदान की गई।
सन् १९६४-६५ में श्री राघवाचार्य जी महाराज के द्वारा अपने गुरुकुल एवं अपनी संस्थापित संस्थाओं के संरक्षण एवं संवर्धन हेतु ट्रस्ट की स्थापना की गई जिसमें उन्होंने स्वयं संस्थापक एवं प्रथम अध्यक्ष के रूप में कार्यों का निर्वहन किया। महाराज श्री के द्वारा तत्कालीन समय में कुछ योग्य शिष्यों के साथ जो गुरुकुल आरम्भ किया वह आज श्री दर्शन महाविद्यालय नाम से विशात्र वट वृक्ष के रूप में परिणित होकर पुष्पित एवं पल््लवित होकर अनेकों जनमानस को लाभान्वित कर रहा है। सन १९२३ में बनारस हिन्दु विश्वविद्यालय के संस्थापक पण्डित महामना मदनमोहन मालवीय जी ने विद्यालय का निरीक्षण किया था। तथा विद्यालय में चल रहे अध्यापन एवं गतिविधियों से प्रसन्न हो कर उन्होंने विद्यालय की भूरी-भूरी प्रसंसा की।

तत्पश्चात् सन् २००० में पृथक राज्य निर्माण के बाद उत्तराखंड के लिए उत्तराखंड संस्कृत विश्वविद्यालय पृथक संस्कृत विश्वविद्यालय स्थापित किया गया, जिसके माध्यम से विद्यालय को साहित्य एवं ज्योतिष विषयों की मान्यता प्रदान की गई। तथा विद्यालय में व्याकरण, साहित्य एवं ज्योतिष के पृथक-पृथक विभाग स्थापित किए गए हैं। जिनमें विद्वान आचार्यो के द्वारा प्रथमा (कक्षा ६) से आचार्य आचार्य (एम०ए०) पर्यन्त अपने विषयों का अध्यापन छात्रों को करवाया जाता है। वर्तमान समय में महाविद्यात्रय में प्रथमा (कक्षा ६) से ले कर आचार्य (एम०ए०) पर्यन्त की कक्षाओं में लगभग २५० छात्र अध्ययनरत हैं।
विद्यालय में संस्कृत शिक्षा परिषद एवं उत्तराखंड संस्कृत विश्वविद्यालय हरिद्वार द्वारा निर्धारित पाठ्यक्रमों के अतिरिक्त विद्यात्रय में छात्रों को ज्योतिष, वैदिक कर्मकांड, भारतीय दर्शन, पुराण, संगीत, कम्प्यूटर आदि की भी शिक्षा प्रदान की जाती है, ताकि विद्यालय से पढ़ा हुआ छात्र जीविकोपार्जन हेतु विभिन्न कार्यों में दक्ष हो सके। विद्यालय के पास मध्यमा (६ से १२ तक) एवं शास्त्री (बी0ए0) आचार्य (एम0 ए0) कक्षाओं को सुव्यवस्थित संचाल्रित करने हेतु पृथक-पृथक भवन, छात्रावास, अध्यापक एवं कर्मचारी निवास के साथ ही विद्यालय से जुड़े सम्मानित जनों के लिए अतिथि निवास निर्मित किया गया है। विद्यालय में छात्रों की संख्या में प्रतिवर्ष वृद्धि होती जा रही है, जिसके लिए विद्यात्रय ट्रस्ट छात्रों की सुविधा हेतु अधिक आवास एवं कक्षा कक्षों के निर्माण हेतु साधनों को संजोने का कार्य अहर्निश करता जा रहा है। प्रतिवर्ष विद्यालय द्वारा नवागंतुक छात्रों का विधिवत यज्ञोपवीत संस्कार कर उन्हें गायत्री, वेद, शौचाचार, एवं वैदक जीवन चर्या की शिक्षा प्रदान की जाती है। ताकि छात्र शिक्षा के साथ-साथ संस्कारों का भी ज्ञान प्राप्त कर समाज में वैदक धर्म की रक्षा करते हुए एक अच्छे समाज का निर्माता भी बन सके।
आवासीर् व्र्वस्था-
छात्रावास की व्यवस्था के अंतर्गत छात्रों को नित्य-नैमित्तिक कर्मों के साथ संध्या, गायत्री जप, नियमित दैनिक पूजा-आरती, गंगा आरती, नियमित रुद्राभिषेक, वैदिक मंत्र एवं विभिन्न स्तोत्रों का पाठ एवं वैदिक वेश-भूषा का पूर्ण रूप से पालन करवाया जाता है, जिसका अनुपात्रन छात्र सहज एवं स्वाभाविक रूप से करने लगते हैं। छात्रों के लञान की वृद्धि तथा विश्व मंगल कामना हेतु समय-समय पर विद्यालय परिवार के माध्यम से विद्वान आचार्यों के सानिध्य में विभिन्न प्रकार के विशिष्ट यज्न-यागयादि का आयोजन भी किया जाता है। आवासीय व्यवस्था के अंतर्गत छात्रों की दिनचर्या एवं रात्रिचर्या व्यवस्थित एवं वैदिक धर्मानुकूल व्यवस्थित की गई है, जिसका निरीक्षण आवासीय विद्वान आचार्यों के द्वारा किया जाता है। विद्यालय की आवासीय व्यवस्था के अंतर्गत छात्रों को अनुकूल आवास, भोजन के साथ अतिरिक्त अध्यापन की सुविधा ट्रस्ट के निजी संसाधनों एवं दानादि से प्राप्त धनराशि से प्रदान की जाती है। वर्तमान सत्र २०२२-२३ में लगभग १५० छात्र विद्यालय की आवासीय व्यवस्था का लाभ प्राप्त कर रहे हैं। सम्प्रति महर्षि महेशयोगी वैदिक प्रतिष्ठान द्वारा भी निरन्तर सहयोग प्रदान किया जा रहा है। इसके अतिरिक्त वर्तमान समय में कई गणमान्य व्यक्तियों एवं संस्थाओं का भी सहयोग प्राप्त होता है। जिससे विद्यालय निरन्तर प्रगति पथ पर अग्रसर है।