संस्थापक के बारे में

संस्थापक के बारे में

संस्थापक के बारे में

परम वैष्णव संत षड दर्शनाचार्य १००८ स्वामी श्री राघवाचार्य जी महाराज का जन्म समसाबाद जनपद फ़र्रुख़ाबाद उत्तरप्रदेश के कान्यकुब्ज ब्राह्मण परिवार में हुआ था। इनके पिता का नाम पण्डित जगन्नाथ शुक्ल व माता श्रीमती गोमती देवी था दोनों दम्पत्ति परम वैष्णव एवं नारायण भक्त थे।

जैसा कि प्रायः सभी महापुरुषों के साथ होता रहा है ठीक वैसे ही बालक राघव भी बाल्यकाल में १६ वर्ष के होने से पूर्व ही माता पिता की स्नेह छाया से विहीन हो चुके थे। माता-पिता से विहीन होने के पश्चात श्री सम्प्रदाय के प्रख्यात वैष्णव संत स्वामी श्री रामाधीनाचार्य जी के सानिध्य में इनका लालन-पालन हुआ।

प्रख्यात वैष्णव संत स्वामी श्री रामाधीनाचार्य जी का जन्म समय विदित नहीं है किंतु जब १८ वर्षीय बालक राघव ने १८७४ में टप्पाखजूरिया खैराबाद सीतापुर उत्तरप्रदेश में स्थित राधाकृष्ण मंदिर में दीक्षा प्राप्त की तब संत रामाधीनाचार्य की उम्र लगभग ८० वर्ष के थी जिससे विदित होता है कि उनका जन्म १८०० सन में हुआ होगा। रामाधीनाचार्य जी के जन्मस्थानादि के बारे में भी कोई जानकारी प्राप्त नहीं होती है, किन्तु सभी को केवल इतना ही ज्ञात है कि वे एक परम विरक्त संत थे तथा तत्कालीन वैष्णव संतों एवं धार्मिक मठ-मंदिरों में उनका बड़ा सम्मान था।

परमवैष्णव आचार्य रामाधीनाचार्य जी के अपने उदीयमान प्रबुद्ध शिष्य राघव को प्रारम्भिक शिक्षा प्रदान करने के पश्चात दर्शन शास्त्रों, भारतीय परम्पराओं आदि के ज्ञान हेतु वाराणसी विद्याध्ययन हेतु जाने की प्रेरणा दी। जिसके कारण राघव ने वाराणसी में वर्षों तक अध्ययनादि करते हुए विभिन्‍न धर्म, दर्शनादि शास्त्रों का अध्ययन कर स्वप्रवीणता प्राप्त की, तथा जनमानस में “विद्यालंकार” के रूप में इनकी ख्याति होने लगी। अनेक स्थानों पर शास्त्रार्थ में विजेता होने के करण बालक राघव की ख्याति विभिन्‍न राजा-महाराज़ाओं तक फैल गई। वेद शास्त्रादि के अध्ययन के पश्चात बालक राघव पुनः गुरु रामाधीनाचार्य जी महाराज के पास लौटा तथा गुरु जी ने बालक राघव को राघवाचार्य नाम देकर प्राचीन ऋषि-महर्षियों के पदानुसरण करने तथा उनकी ही भाँति देश के विभिन्‍न तीर्थों के परिभ्रमण करने एवं हिमालय में तपस्या करने का आदेश दिया।

गुरु आदेश से विभिन्‍न तीर्थों में भ्रमण व अनेक स्थानों पर तपस्या करते हुए १८८५ में तपस्या के उद्देश्य से श्री बद्रीनाथ की ओर प्रस्थान किया । बद्रीधाम गमन के समय वे एक रात्रि विश्राम हेतु मुनि की रेती जहाँ आज श्री दर्शन महाविद्यालय स्थित है में रुके। तत्पश्चात्‌ लगभग २०-२५ वर्षों तक बद्रीधाम एवं कई वर्षों तक हिमालय के गुफाओं में तप किया। साथ ही अनेक सिद्ध संतों के सत्संगति कर उनसे आध्यात्म एवं योग के गुप्त रहस्यों का ज्ञान प्राप्त कर काल्ान्तर में संयोगवसात पुनः उसी पूर्व स्थान मुनि की रेती में खुले आसमान के नीचे आसन जमाकर बैठ गये।